
गढ़वा में विकास की हार कोई साधारण घटना नहीं है। यह उस सोच पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न लगाता है, जो राजनीति को जाति और धर्म के दायरे में सीमित कर देती है। संयुक्त बिहार के समय से ही गढ़वा को एक पिछड़े क्षेत्र के रूप में देखा गया था। यह वह जिला था, जहां विकास तो दूर, बुनियादी सुविधाओं की कल्पना करना भी कठिन था। लेकिन 2019 में जब झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार बनी और गढ़वा से विधायक चुने गए मिथिलेश ठाकुर मंत्री बने, तो इस जिले की तस्वीर बदलने लगी। पांच साल के अथक प्रयासों और मजबूत विजन के साथ उन्होंने वह कर दिखाया, जो शायद गढ़वा की जनता ने कभी सोचा भी नहीं था।
गढ़वा का कायापलट कर मिथिलेश ठाकुर जी ने गढ़वा को एक विकासशील सफर दिया है। मिथिलेश ठाकुर के नेतृत्व में गढ़वा ने विकास के हर क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की। गांव-गांव तक सड़कें पहुंचीं, पेयजल की सुविधा घर-घर तक पहुंचाई गई, शहरीकरण ने गति पकड़ी और गढ़वा का नाम तेजी से एक उभरते हुए जिले के रूप में जाना जाने लगा। यहां तक कि गढ़वा की पहचान अब एक विकासशील जिले के रूप में होने लगी और आसपास के जिलों के लोग भी गढ़वा को विकास का आदर्श मानने लगे।
लेकिन यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। जिस क्षेत्र को विकास के पैमाने पर इतना आगे ले जाया गया, वहां के लोगों ने उसी विकास के प्रतीक, अपने जनप्रतिनिधि मिथिलेश ठाकुर को चुनाव में नाकार दिया। यह न केवल गढ़वा बल्कि पूरे झारखंड के लिए एक झटका था। यह एक ऐसा झटका है, जिसने विकास के महत्व और राजनीति में उसकी भूमिका पर नए सिरे से बहस छेड़ दी है। विकास बनाम जाति और धर्म की राजनीति को गढ़वा में मिथिलेश ठाकुर की हार ने एक बार फिर इस कटु सत्य को उजागर किया है कि भारतीय राजनीति में जाति और धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण कितनी मजबूती से अपनी जड़ें जमा चुका है। यह घटना उस विडंबना को भी रेखांकित करती है, जिसमें विकासशील नेता हार जाते हैं और ऐसे जनप्रतिनिधि जीत जाते हैं, जो अपने क्षेत्र में एक बड़े काम तक नहीं गिनवा सकते। गढ़वा के पड़ोसी जिले पलामू का उदाहरण सामने है, जहां एक विधायक तीसरी बार चुने गए, जबकि उनके क्षेत्र में विकास की कोई उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं थी।
मिथिलेश ठाकुर का हारना यह साबित करता है कि विकास की राजनीति करना जितना कठिन है, उतना ही जोखिम भरा भी। इस घटना ने झारखंड के नेताओं और जनता दोनों के सामने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या विकास अब राजनीति का मुद्दा ही नहीं रहा? क्या जनप्रतिनिधि केवल जाति और धर्म की राजनीति के आधार पर जनता का विश्वास जीत सकते हैं? गढ़वा का यह संदेश साफ है और सोचने का यही सही समय भी है। गढ़वा की जनता ने सोच-समझकर ही फैसला किया होगा, लेकिन यह फैसला न केवल गढ़वा बल्कि झारखंड की राजनीति के लिए एक चेतावनी है। यह बताता है कि राजनीति में विकास का स्थान गौण हो चुका है। जब जनता विकास की उपेक्षा करती है, तो वह अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य और अपनी मूलभूत जरूरतों को भी दांव पर लगा देती है।
गढ़वा की घटना यह संदेश देती है कि अगर राजनीति केवल जाति और धर्म के आधार पर की जाएगी, तो इसका खामियाजा अंततः आम जनता को ही भुगतना पड़ेगा। विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क और बुनियादी सुविधाओं का महत्व कभी खत्म नहीं हो सकता। लेकिन जब इन मुद्दों को दरकिनार कर दिया जाता है, तो यह न केवल वर्तमान बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक गंभीर चुनौती बन जाता है। अब विकास की राजनीति का पुनर्मूल्यांकन का वक्त है। गढ़वा ने जो किया, वह एक बड़ा सवाल छोड़ गया है—क्या राजनीति अब विकास से परे जाति और धर्म तक सिमट चुकी है? जवाब शायद समय देगा, लेकिन यह तय है कि विकास को नजरअंदाज करना आने वाले समय में किसी भी समाज के लिए घातक सिद्ध होगा। गढ़वा की जनता ने जो निर्णय लिया, उसने झारखंड ही नहीं, पूरे देश को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर हमारी प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए।
विकास का रास्ता ही वह समाधान है, जो विभाजन की राजनीति का जवाब बन सकता है। यह संदेश जितनी जल्दी समझा जाएगा, उतना ही बेहतर होगा।
लेखक:- सन्नी शुक्ला, अध्यक्ष, झामुमो युवा मोर्चा पलामू
(यह लेखक के स्वतंत्र विचार हैं)
- VIA
- Admin

-
19 Apr, 2025 47
-
19 Apr, 2025 175
-
19 Apr, 2025 254
-
19 Apr, 2025 75
-
18 Apr, 2025 141
-
17 Apr, 2025 94
-
24 Jun, 2019 5536
-
26 Jun, 2019 5364
-
25 Nov, 2019 5237
-
22 Jun, 2019 4978
-
25 Jun, 2019 4630
-
23 Jun, 2019 4268
FEATURED VIDEO

GARHWA

PALAMU

PALAMU

PALAMU

PALAMU

PALAMU

LATEHAR

GARHWA

JHARKHAND
