
31 दिसंबर 2019 ,जब पूरे दुनिया का पहला कोविड -19 केस चीन के वुहान शहर में दस्तक दे चुका था। उस वक़्त लोगों को इसकी गंभीरता का जरा भी अंदेशा नहीं था कि ये बीमारी इतना भयावह रूप धारण कर लेगा। लोगों ने ये तो कभी ना सोचा था कि एक दिन इंसान पिजरे में कैद होने को विवश होगा। देखते ही देखते विश्व के लगभग देश इस भयंकर बीमारी कि चपेट में आ गए। हमारे इंडिया का पहला केस 30 जनवरी 2020 को केरला में तब सामने आया जब वुहान विश्वविद्यालय की छात्रा अपने घर केरला पहुंची। इसमें परेशान होने कि कोई बात नहीं क्युकी सरकार को उस वक़्त भी पता था कि अगर कोई सबसे ज्यादा परेशान होने वाला है तो वो है आम जनता तभी तो विदेशों से भारत आने वाले लोगों को आसानी से एयरपोर्ट पर अनदेखा किया जाता रहा। मैंने अपने लोगों को अपने ही देश में वापस बुलाने को कभी गलत नहीं कहा पर क्वारेंटाइन की प्रथा उस वक़्त क्यों नहीं थी? क्या विदेशों से आ रहे लोगों को एक निश्चित अवधि के लिए अलग रखने से ज्यादा आसान था संपूर्ण लॉकडाउन? वैसे मैं साथ ही साथ ये भी बताती चलूं की डब्ल्यू एच ओ ने संपूर्ण लॉकडॉउन की बात कभी नहीं की, फिर भी जरुरत के हिसाब से अलग अलग देशों ने अलग अलग समयावधि के लिए लॉकडाउन किया। 30 जनवरी से 22 मार्च तक सरकार बहुत व्यस्त थी जनता की सेवा में जैसे - ट्रंफ के स्वागत में , मध्य प्रदेश में बी जे पी की सरकार बनाने में, दूसरे देशों से वाहवाही लूटने में और सबसे महत्वपूर्ण सेवा भला मैं कैसे भूल सकती हूं - दिल्ली में हुए दंगे। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के दो दिनों के यात्रा के साथ साथ एक अलग अध्याय शुरू हो चुका था। इस अध्याय ने ना जाने कितने लोगों के सिर्फ घर ही नहीं बल्कि हमेशा के लिए उन्हें उनके अपनों से भी दूर कर दिया। वो एक एक पल मेरे अब तक के जिंदगी के सबसे भयावह पल थे। 24 फरवरी से 29 फरवरी तक मानो जिंदगी थम सी गई थी। लोग एक दूसरे को सहमी निगाहों से देख रहे थे। मेरी कुछ मुस्लिम दोस्तों को उनके घर से ये सलाह दी जा रही थी कि वो हॉस्टल से कम से कम बाहर निकालें और बहुत जरूरी होने पर अगर निकलना भी पड़े तो जो बुर्का लगाती थीं उन्हें ये हिदायद दी जा रही थी कि बुर्का बिल्कुल ना पहनें, इसका ये मतलब बिल्कुल नहीं था कि हिन्दू आजादी से घूम रहे थे। दंगे भड़कते भले ही किसी धर्म के नाम पर हो, पर बहने वाला खून हमेशा एक इंसान का होता है। इसके बावजूद की हम एक स्टूडेंट एरिया में थे, डर का माहौल पूरा दिल्ली झेल रहा था। दंगों के किस्से सुने थे पर यू उसी शहर में रह कर , शहर के हर कोने में पसरे सन्नाटे को पहली बार महसूस किया मैंने। अजीब है ना अपने देश का दिल \"दिल्ली\" जलता रहा और केंद्र सरकार वहीं बैठ आराम से तमाशा देखती रही। दिल्ली वैसे तो केंद्रशासित प्रदेश भी है पर यहां पुलिस दिल्ली सरकार के हाथ में ना हो कर सीधे केंद्र के होम मिनिस्ट्री के अन्तर्गत काम करती है। बाकी राज्यों में पुलिस राज्य सरकार के अधीन काम करती है। इन सारे घटनाओं के बीच कोरॉना के मरीजों की संख्या बढ़नी शुरू हो चुकी थी। एयरपोर्ट पर पूरी चेकिंग हो रही थी और उन्हें होम कवरेंटाइन के ठप्पे का साथ घर के लिए छोड़ दिया का रहा था। अब मोदी जी को ये कौन बताए और भला उन्हें ये बात पता चलेगी भी कैसे की भारतीय आपस में कितने मिलनसार हैं, जब से प्रधान मंत्री का पद महाशय ने संभाला है ,बस विदेशों की यात्रा कर रहे हैं। सर जी कभी अपने देश के गावों कि तरफ भी एक बार नजर फेर लीजिए तब शायद समझ आ जाए भारतीय कैसे हैं और बात रही आपकी सिक्योरिटी की तो आप जमीं को क्या आसमां में भी हज़ारों नजरें बिछा सकते हैं आप। कुछ ऐसा ही सिक्योरिटी का इंतजाम किया गया था जब बराक ओबामा हमारे देश आए थे। अब मार्च भी आ चुका था ,कोविड -19 का केस बढ़ता ही जा रहा था।दिल्ली से बाहर के बसे लोगों की दुविधा बढ़ती ही जा रही थी इस बात को लेे कर की वो घर जाए या यही कुछ दिन और इंतजार करें। अगल अलग लोगों के द्वारा अलग अलग कायास लगाए जा रहे थे। डॉक्टर्स का ये कहना था कि अब मरीज़ तो आएंगे ,हमें उसके लिए तैयार रहना होगा। कितने आएंगे ..... बेशक इसका अंदाजा कोई नहीं लगा सकता था। कुछ लोग दंगे की वजह से तो कुछ होली पर घर जा चुके थे , और होली के बाद तुरंत वापस दिल्ली जाने का माहौल कुछ ठीक भी ना था। इसीलिए लोगों ने थोड़ा इंतजार करना ही उचित समझा। सन्नाटा दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा था। उस वक़्त माहौल इतना अलग था कि लोग ट्रैवल करने से भी डरने लगे थे, लोगों को खुद के जान की तो डर थी ही साथ ही साथ ये भी आशंका थी कि कहीं उनकी वजह से किसी दूसरे को ना हो जाए ये बीमारी। 11 मार्च को डब्ल्यू एच ओ के द्वारा कॉरोना को वैश्विक महामारी घोषित कर दिया था। किसी बीमारी को वैश्विक महामारी तब घोषित किया जाता है जब कोई बीमारी एक क्षेत्र से निकलकर लगभग पूरी दुनिया में अपनी पकड़ बना लेती है। होली के पहले एक ट्रेन छोड़ने के बाद मैंने अपनों को तो समझा लिया था कि अभी घर नहीं जाना पर शायद खुद को नहीं समझा पायी थी - एक अजीब तरह की उलझन में मैं उलझती ही जा रही थी, मानो कुछ सही नहीं हो रहा था। हमेशा की तरह 18 मार्च को भी जागने के बाद मैंने पेपर पढ़ा पर मन अब भी मानो बेचैन था। मैंने ट्रेन कि टिकट चेक की - सीट अनावैलबल। भला ऐसा कभी हो सकता है कि समे डे की टिकट सेम डे मील जाए। मैंने फिर से चेक किया पर इस बार तत्काल देखा - 2 ए सी आर की 23 सीटें अब भी उपलब्ध थी। मैंने दो से तीन बार रिफ्रेश किया ,कहीं ऐसा तो नहीं सीट गलत दिखा रहा ,पर ये क्या 23 की 23 सीटें अब भी ज्यों की त्यों। मैंने उसी ट्रेन कि अगली तारीख देखी , अगली तारीख 21 की थी। सुबह के 10 बज चुके थे ,मैंने घर आने की कोई तैयारी ही नहीं की थी और ट्रेन शाम 5 बजे की थी। मैंने सोचा 21 की टिकट ही कर लेती हूं पर फिर मैंने सोचा आज क्यों नहीं? मैंने सारे उलझन को एक ओर रखा और सबसे पहले मैंने टिकट किया। अब सबसे बड़ी परेशानी सुरक्षित अपने घर तक पहुंचना था। मैंने अपनी ओर से सारी ऐतियात बरतने की कोशिश की पर शायद रेलवे अब भी निश्चिंत था , या यूं कहें बेवरवाह। प्लेटफार्म पर भीड़ कम थी ,पर ऐसा नहीं था कि बिल्कुल नहीं थी। ट्रेन में ऐतियात के तौर पर सिर्फ कर्टेन को हटा दिया गया था ,बाकी सफाई आम दिनों इतनी भी नहीं थी। मैं ये कथा कॉरॉना के आगमन के लगभग दूसरे महीने के पूरे होने में चंद ही दिन बेकी थे तब की कर रही हूं। इस से कुछ अंदाजा तो आप लगा ही सकते हैं कि हमारा देश कितना तैयार था। खैर मैं रेलवे की असीम कृपा से अपने घर 19 की सुबह पहुंच गई, पर मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि आनेवाले दिन गरीबों के लिए इतने दर्दनाक होंगे।जिनके पास पैसे थे वो कहीं भी रह कर कम से कम खाना तो खा सकते थे ,पर वो क्या करते जो हर दिन की मजदूरी पर निर्भर थे। \"आज रात 12 बजे से\".......जब भी ऐलान में रात के 12 बजे का जिक्र हो ,समझ लो खतरे की घंटी बज चुकी है। मेरे लिखने से या टीवी चैनलों पर थोड़े देर बहस कर लेने से उनकी पीड़ा को आंकना बिल्कुल मुमकिन नहीं, पर दुख इस बात की है कि लोगों ने सच्चाई से मुंह मोड़ना सिख लिया है। हर बार खतरे से ना डरने वालों को ढीठ कहना भी सही नहीं , कई बार कुछ लोगों के लिए ये मजबूरी भी हो सकती है। हां बात अलग है कि एक बड़ा समूह सौक से भी ढीठ बनने की कोशिश हमेशा से करता रहा है, जिसका खामियाजा बेशक माशुम लोगों को झेलना पड़ा है। 22 मार्च को जनता कर्फ़्यू और फिर लॉकडाउन कि प्रक्रिया ,एक ऐसा सिलसिला जो अब तक चल ही रहा है।जब देश में लगभग 200 या 250 की संख्या थी कोविड 19 की, तब पहली बार लॉकडाउन होने पर लोगों को ऐसा लगा मानो इन 21 दिनों में कोरोना तो अब गायब ही हो जाएगा पर समय बीतता गया , और मरीजों कि संख्या बढ़ती गई। तत्काल एक दिन में एक लाख कि संख्या प्रतिदिन बढ़ रही है पर शायद अब हम आत्मनिर्भर बन गए हैं , हमने कोरोना से लड़ना भी सिख लिया है। मजदूर उस वक़्त दो वक़्त की रोटी के लिए अपने गांव पैदल आने को मजबूर थे , पर जब गांव भी रोटी ना दे सका तो वापस फिर शहर कि ओर लौटने को मजबूर हैं। प्यासा हिरण रेत को देख पानी कि तलाश में ईधर से उधर दौड़ता है पर पानी है कहां ,जो उसे मिल जाए। कुछ लोगों के लिए ये त्योहार भी है , जो भी सीमित पैसे सरकार की तरफ से आ रहे हैं उन पैसों से बहुत सारे अधिकारी या नेता अपनी तिजोरी भरने में लगे हैं। वैसे देखा जाए तो जिसकी जिंदगी जैसी थी ,वैसी ही है ,कोई बदलाव नहीं हुआ। अमीर आज भी अपने ए सी के कमरे में आराम से बैठा है और गरीब आज भी उन ऊंची इमारतों के नीचे इस आस में खड़ा है कि शायद उसे कोई नौकरी मिल जाए। सबके साथ ,सबके विकास का हिस्सा बने रहिए पर सबसे पहले अपनी रक्षा का संकल्प आपको खुद लेना होगा क्युकी सरकार के द्वारा चलाई जा रही कोविड 19 सिनेमा को पर्दे पर से हटा दिया गया है और सरकार ये मान चुकी है कि आप पूरे तरीके से आत्मनिर्भर बन चुके हैं।
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- Namita Priya

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